बुधवार, 5 अगस्त 2009

भगवान रूद्र के रूप अनेक










रूद्र के रूप अनेक
भगवान शिव सृष्टि के संहारक है उनके संहारक स्‍वरूप को रूद्र कहा गया है रूद्र के ग्‍यारह रूपों या एकादश रूद्र की कथा वेदों-पुराणों में वर्णित है इनकी विभूति समस्‍त देवताओं में समाहित है यहॉं शिव भक्‍तों की सुविधा के लिए रूद्र के विभिन्‍न रूपों का संक्षिप्‍त वर्णन कि‍या है :-


शंभू

भगवान रूद्र ही इस सृष्टि के सृजन,पालन और संहारकर्ता है, शंभू, शिव, ईश्‍वर और महेश्‍वर आदि कई नाम उन्‍हीं के है श्रुति का कथन है कि एक ही रूद्र है, जो सभी लोको को अपनी शक्ति से संचालित करते है अतएव वे ही ईश्‍वर है, वे ही सबके भीतर अंतरयामी रूप से स्थित है ।


पिनाकी

शैवागम में दूसरे रूद्र का नाम पिनाकी है, श्री ब्रम्‍हा जी नारद जी से कहते है जब हमने व भगवान विष्‍णु ने शब्‍दमय शरीरधारी भगवान रूद्र को प्रणाम किया, तब हम लोगों को ओमकारजनित मंत्र का साक्षातकार हुआ, तत्‍पश्‍चात ॐतत्‍वमसि यह महाकावाय दृष्टिगोचर हुआ, फिर संपूर्ण धर्म और अर्थ के साधक गायत्री मंत्र का दर्शन हुआ उसके बाद मुझ ब्रम्‍हा के भी अधिपति करूणानिधि भगवान पिनाकी सहसा प्रकट हुए, चारों वेद पिनाकी रूद्र के ही स्‍वरूप है ।


गिरीश

शैवागम के तीसरे रूद्र का नाम गिरीश बताया गया है, कैलाश पर्वत पर भगवान रूद्र के निवास के दो कारण है पहला कारण अपने भक्‍त तथा मित्र कुबेर को उनके अलकापुरी के सन्निकट रहने का दिया गया वरदान है दूसरा कारण रूद्र की प्राणवल्‍लभा उमा का गिरिराज हिमवान के यहॉं अवतार है


भर्ग

पॉंचवे रूद्र भगवान भर्ग को भय विनाशक कहा गया है, दुख: पीडीत संसार को शीध्रआतिशीध्र दुख: और भय से मुक्‍त करने वाले केवल महादेव भगवान भर्ग रूद्र ही है भर्ग रूद्र (तेज) ज्ञान स्‍वरूप होने के कारण मुक्ति प्रदान करके भक्‍तों को भय (संसार) सागर के भय से त्राण देते है ।


सदाशिव

शैवागम मे रूद्र के छठवें स्‍वरूप को सदाशिव कहा गया है, शिव पुराण के अनुसार सर्वप्रथम निराकार पर ब्रम्‍ह रूद्र ने अपनी लीला शक्ति से अपने लिए मूर्ति की कल्‍पना की, वह मूर्ति सम्‍पूर्ण ऐश्‍वर्य गुणों से सम्‍पन्‍न, सबकी एकमात्र वंदनीय, शुभ-स्‍वरूपा, सर्वरूपा तथा संपूर्ण संस्‍कृतियों का केन्‍द्र थी उस मूर्ति की कल्‍पना करके यह अद्वितीय ब्रम्‍ह अंतर्हित हो गया, इस प्रकार जो मेर्तिरहित पर बगम्‍ह रूद्र है उन्‍ही के चिन्‍मय आकार सदाशिव है ।


शिव

शैवागम में रूद्र के सातवें स्‍वरूप को शिव कहा गया है, शिव शब्‍द नित्‍य विज्ञाननन्‍दधन परमात्‍मा का वाचक है , इसलिए शैवागम भगवान शिव को गायत्री द्वारा प्रतिपाघ व एकाक्षर ओंकार का वाच्‍यार्थ मानता है, जहॉं आन्‍नद है वहीं शांति है और परम आन्‍नद को ही परम कल्‍याण कहते है, अत: शिव शब्‍द का अर्थ परम कल्‍याण समझना चाहिए ।


हर

शैवागम के अनुसार भगवान रूद्र के आठवें स्‍वरूप का नाम हर है, भगवान हर को सर्पभूषण कहा गया है इसका अभिप्राय यह है कि मंगलवार और अमंगल सब कुछ ईश्‍वर–शरीर मे है, दूसरा अभिप्राय यह है कि संहारकारक रूद्र में संहार-सामग्री रहनी ही चाहिए, सर्प से बढ कर संहारकारक तमोगुणी कोई हो ही नही सकता क्‍योंकि अपने बच्‍चों को भी खा जाने की वृती सर्प जाती में ही देखी जाती है, इसलिए भगवान हर अपने गले में सर्पो की माला धारण करते है ।


शर्व

शैवागम में रूद्र के नौंवे स्‍वरूप का नाम शर्व है, शर्वदेवमय रथ पर सवार होकर त्रिपुर को संहार करने के कारण भी इन्‍हे शर्व रूद्र कहा जाता है, शर्व का एक तात्‍पर्य सर्वव्‍यापी, सर्वात्‍मा और त्रिलोकी का अधिपती भी होता है ।


कपाली

शैवागम के अनुसार दसवें रूद्र का नाम कपाली है, पदृपुराण (सृष्टि खण्‍ड 17) के अनुसार एक बार भगवान कपाली ब्रम्‍हा के यज्ञ में कपाल धारण करके गये, जिसके कारण उन्‍हें यज्ञ के प्रवेश द्वार पर ही रोक दिया गया, उसके बाद भगवान कपाली रूद्र ने अपने अनंत प्रभाव का दर्शन कराया ।


भव

भगवान रूद्र का यह ग्‍यारहवां स्‍वरूप जगदगुरू के रूप में वंदनीय है, भव-रूद्र की कृपा के बिना विधा, योग, ज्ञान, भक्ति आदि के वास्‍तविक रहस्‍य से परिचित होना असंभव है, वे अपने क्रिया-कलाप, संयम-नियम आदि द्वारा जीवनमुक्‍त योगियों के परम आदर्श है ।


गंगाधर

पुष्‍पशीला गंगा जब भगवान रूद्र के मस्‍तक पर गिरी, तब वे उनकी जटाओं के जाल में बुरी तरह उलझ गयीं, लाख प्रयत्‍न करने पर भी वे बाहर न निकल सकीं, जब भगवान भगीरथ ने देखा कि गंगाजी भगवान शिव के जटामंडल में अदृश्‍य हो गयी, तब उन्‍होनें पुन: भोलेनाथ को प्रसन्‍न करने के लिए तप करना प्रारंभ कर दिया, उनके तप से संतुष्‍ट होकर भगवान शिव ने गंगाजी को लेकर बिंदु सरोवर में छोडा, वहॉं से गंगाजी सात धाराऍं हो गयीं, इस प्रकार भगवान शंकर की कृपा से गंगाजी का धरती पर अवतरण हुआ और भगीरथ के पितरों के उद्धार के साथ पतितपावनी गंगा संसारवासियों को प्राप्‍त हुई ।


हरिहर रूप

विष्‍णुजी ने देवताओं को अपने हरिहरात्‍मक रूप का दर्शन कराया, देवताओं ने एक शरीर में भगवान विष्‍णु और भोलेनाथ शंकर अर्थात हरि और हर का एकसाथ दर्शन कर स्‍तुति की ।


पंचमुखी शिव

भगवान शंकर के ऊपर की ओर गजमुक्‍ता के समान किंचित श्‍वेत-पीत वर्ण, पूर्व की ओर सुवर्ण के समान पीतवर्ण, दक्षिण की ओर सजल मेध के समान सधन नीलवर्ण, पश्चिम की ओर स्‍फटिक के समान शुभ उज्‍जवल वर्ण तथा उत्‍तर की ओर जपापुष्‍प या प्रवाल के समान रक्‍तवर्ण के पॉंच मुख है ।


महामृत्‍युंजय

भगवान मृत्‍युंजय अपने ऊपर के दो हाथों में स्थित दो कलशों से सिर को अमृत जल से सींच रहें है अपने दो हाथों में क्रमश: मृगमुद्रा और रूद्राक्ष की माला धारण किये है, दो हाथों में अमृत कलश लिये है, दो हाथों से अमृत कलश को ढके है ।


औधरदानी शिव

भगवान शिव और उनका नाम सम्‍स्‍त मंगलों का मूल है वे कल्‍याण की जन्‍मभूमि तथा शांति के आगार है, वेद तथा आगमों में भगवान शिव को विशुद्ध ज्ञानस्‍वरूप बताया गया है, समस्‍त विधाओं के मूल स्‍थान भी भगवान शिव ही है । उनका यह दिव्‍य ज्ञान स्‍वत: संभूत है ज्ञान, बल इच्‍छा और क्रिया शक्ति में भगवान शिव के समान कोई नही है ।


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